20.6.08

लौ.....

हारता अँधेरा देखा मैंने....
उस तुच्छ दीप से,
जिसकी लौ ....संघर्षरत रही.....
जीवन भर,
उस अन्धकार से॥
जो अपनी गहराई के दंभ से
फूला न समाता था,
हर शाम निष्ठुरता से
उजाले को निगल जाता था!
पर कैसा विवश
दिख रहा था आज
उस लौ के समक्ष...
जो साहस निश्चय और दृढ़ता से ,
लड़ रही थी अंधेरे से....!
मैंने पाया ...यही जीवन है...
उस जलती लौ का संदेश...
'पलायन नही संघर्ष...'
यही है शायद...
अस्तित्व का औचित्य
और जीवन का उत्कर्ष!!!

1 comment:

DUSHYANT said...

waah.. abahut sundar kavitaa ban padee hai..