22.11.08

सपने देखने का अपराधबोध...

सपने देखने का अपराधबोध
पनपने लगता है अंतस मे
हर उस क्षण
जब यह प्रक्रिया
प्रतीत होने लगती है
निहायत ही स्वार्थी,आत्मकेंद्रित
और वर्गीय!

सपने देखने का अपराधबोध
पनपने लगता है अंतस मे
जब कक्षा १२ की उस निर्दोष के
दोनों पोलियोग्रस्त पैरों को छूते हुए
मेरे मुह से निकलता है...
"काश! एक पैर भी ठीक होता
तो तकलीफ़ थोडी कम हो जाती"
एक मृत सपने में से जैसे आवाज़ आती है
"मैम ! दोनों पैर ठीक होते तो?"
और रोने लगती है पूरी कक्षा,वो निर्दोष और खामोशी...!

सपने देखने का अपराधबोध
पनपने लगता है अंतस में
जब गली के नुक्कड़ की
'शर्मा स्वीट्स' में मेरे ४ समोसे 'पैक' करते
८ साल के छोटू से ये प्रश्न पूछ बैठती हूँ
"बेटा! स्कूल नहीं जाते हो क्या?"
एक मृत सपने में से जैसे आवाज़ आती है
"अच्छा नही लगता"
और हसने लगते हैं दूकान के बाकी छोटू!

सपने देखने का अपराधबोध
पनपने लगता है अंतस में
जब कचरा बीनते बच्चे
न जाने क्या पाकर चले जाते है एक किनारे
और सिगरेट के एक अधजले टुकड़े को
फिर जलाकर,जली हुई ज़िन्दगी में
धुंआ भरने लगते हैं!
मैं कह देती हूं
"क्यों पीते हो,मरोगे एक दिन!"
एक मृत सपने से जैसे आवाज़ आती है
"जी! मज़ा आवे है!"
और खिलखिला दिए बच्चे,सिगरेट और धुआं!

सपने देखना अपराध नहीं होता
और टूटने, चुभने, जलने, बिखरने से
नहीं मिटते सपने!
पर शहर की भीड़ की
कुछ गुमनाम आँखों में
नहीं पलता एक भी सपना.....
पर मेरे भीतर पलने लगता है
एक अपराधबोध
उस स्वार्थ के लिये
जिसके सारे सवाल '
मेरे सपनों' पर आकर
ठहर जाते हैं
आज की तरह....!

18.11.08

खोज...

जब....

नकारते हैं हम

तथ्यों को,

स्वीकारते हैं हम

भावनाओं को,

पुकारते हैं हम,

अतीत को,

धिक्कारते हैं हम

वर्तमान को....

तो क्या ये चाहत होती है,

या कुंठित इच्छाएं?

अयथार्थ की खोज

यथार्थ के विस्तार में!

अवास्तविक की पहचान,

तथ्यों की गहराई में!

क्या ये छद्म विवेक है,

या साक्षात अहम्?

जिसमे सिर्फ़ छलावा है...

और उस छलावे में॥

सत्य खोजते

'हम' !!!

2.11.08

आस

थक गयी है॥
आस अपनी मंजिलों को खोजते खोजते,
दायरों में घूम कर,
फिर किसी पल ठहर,
सांस लेती सब्र से ...
फिर उठी,
न जाने किसको ढूँढने में...
पक गयी है...........
थक गयी है!!!