2.11.08

आस

थक गयी है॥
आस अपनी मंजिलों को खोजते खोजते,
दायरों में घूम कर,
फिर किसी पल ठहर,
सांस लेती सब्र से ...
फिर उठी,
न जाने किसको ढूँढने में...
पक गयी है...........
थक गयी है!!!

10 comments:

hem pandey said...

इतना निराशावादी लेखन क्यों ? -

ढूंढते हैं हम जिसे
वह एक दिन आ जायेगा
यह आस है विश्वास है
यह आस और विश्वास ही तो जिन्दगी की साँस है !

दिनेशराय द्विवेदी said...

आस न थकती है, न पकती है।

नीरज गोस्वामी said...

कभी कभी आस टूटने का एहसास बड़ा दुःख दाई होता है...लेकिन आस है तो साँस है...
नीरज

अजय कुमार झा said...

aas ko thodaa sustaane dijiye fir uthkar dobara khadee ho jayegee nai ummeedon ke saath.

MANVINDER BHIMBER said...

सांस लेती सब्र से ...
फिर उठी,
न जाने किसको ढूँढने में...
पक गयी है...........
थक गयी है!!!
यह आस और विश्वास ही तो जिन्दगी की साँस है !

दिगम्बर नासवा said...

आस को जीवित रखना ही जीवन के मध्य मे है
आस है तो जीवन है

किन्तु आपका लेखन सुंदर है

सुशील छौक्कर said...

बहुत खूब लिखा है। इस उम्मीद पर ही तो दुनिया कायम है।

पुरुषोत्तम कुमार said...

कविता भी जीवन की तरह है। कभी निराशा तो कभी आशा और उमंग। जाहिर है ये दोनों तत्व कविताओं में भी आयेंगे।

अभिषेक मिश्र said...

थक गयी है॥
आस अपनी मंजिलों को खोजते खोजते,
Thak bhale gayi ho aas, magar rokna to manjil par pahunch kar hi hai.Shubhkaamnayein aur swagat mere blog par bhi.

Dr. Nazar Mahmood said...

goood one
keep it up