17.6.08

कैक्टस की व्यथा

चिर तिरस्कृत
उपेक्षित ....अकेला....
मरुभूमि में
सूर्य की तपती धुप में
पर फिर भी
जीवित.....
रो रहा था पीड़ा से
दुखी...अपने भाग्य पर....
क्यो आच्छादित किया विधाता ने मुझे...
काँटों और सिर्फ़ काँटों से...
काश मैं भी पुष्प होता....
किसी रंगीन उपवन का
तो शायद खुश रहता....
यूँ अपने भाग्य पर आंसू तो न बहाता,
काश........
एक बादल होता
मुक्त आकाश में विचरण तो करता...
न की यूँ वीरान में ॥
आहें भरता।
पर सोचा तो पाये
की कांटेदार हूँ....
इसीलिए जीवित हूँ आज तक ,
अन्यथा मैं भी.... मानव के स्वार्थ की
बली चढ़ जाता....
तोड़ के मसल दिया जाता....
या अपने आंसू बरसाकर....
अस्तित्वहीन हो जाता......!!!!!!

No comments: