17.6.08

वेदना

किस ओर नहीं रोता है स्वर....

परिहासों का विस्तृत मेला
मेरे संग यादों का ठेला
रीते नैना और रीते कर!

मुख मौन मगर बोला करतीं
सब भेदों को खोला करतीं
बरसातीं अखियाँ निर्झर !

मन चाहा पंछी सी उड़ जाऊं
कल्पित पंखों को फैलाऊं
पर थाह नहीं देता अम्बर!

मानव जीवन पथ पर उठ गिर
फ़िर मृत्यु अंक में रखकर सर
सोता निरीह बालक बनकर!

हाय! कितना निष्ठुर संसार
वेदना के मौन उद्दगार
देते मन को करुना से भर!

किस और नहीं रोता है स्वर......

1 comment:

Satish Shukla said...

Bahut acchi Rachna hai !