भावनाएं कभी मर सकती हैं भला...... वैसे लोग कोशिश तो बहुत करते हैं.....मुझे जिंदा रहने के लिए इनकी ज़रुरत हैं.....बिलकुल वैसे ही जैसे मुझे साँसों की ज़रुरत है.....अगर कविता माध्यम बन जाये इनकी अभिव्यक्ति का......तो ये कोई प्रयास नहीं.....बल्कि सहज और सरल अभिव्यक्ति है...!
14.8.08
आज़ादी
दीवारें उगी हैं...ऊंची ऊंची.. बाहर भीतर.....चारो ओर, दिल पर,आत्मा पर,सोच पर.... आज १५ अगस्त है... मैं आजाद क्यों नहीं हुई?
3 comments:
*दीवारें उगी हैं...ऊंची ऊंची..
बाहर भीतर.....चारो ओर,*
एक संवेदनशील भारतीय की व्यथा साफ दिखती है आपकी इन दीवारों के आईने में कैद रूह-सी...
too good...!!!
short n sweet....chhoti magar sateek!!
-Madhuri
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