क्षण में बनते ,
पल में टूटे।
स्वप्न मेरे थे,
किसने लूटे?
किसने मुझको,
भ्रमित किया?
मेरे उत्कर्षो को
पतित किया।
वह क्या जिसने
छीने मेरे,
सपनो और साँसों
के घेरे?
पाने की चाहत
भी न थी,
आशा की आहट
भी न थी.
फ़िर भी कलियों
में तारों में,
जीना सीखा
विस्तारों में.
देखे सपने
मन दर्पण में
पर सब दर्पण
टूटे क्षण में.....
3 comments:
देखे सपने
मन दर्पण में
पर सब दर्पण
टूटे क्षण में.....
bahut sundar kavita hai
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मेरी पहली कविता...... अधूरा प्रयास
क्षण में बनते ,
पल में टूटे।
स्वप्न मेरे थे,
किसने लूटे?
देखे सपने
मन दर्पण में
पर सब दर्पण
टूटे क्षण में.....
bhaavpoorna abhivyakti
badhaai
-Madhuri
achcha likhtee hai aap....
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