27.8.08

क्षण में....

क्षण में बनते ,
पल में टूटे।
स्वप्न मेरे थे,
किसने लूटे?

किसने मुझको,
भ्रमित किया?
मेरे उत्कर्षो को
पतित किया।

वह क्या जिसने
छीने मेरे,
सपनो और साँसों
के घेरे?

पाने की चाहत
भी न थी,
आशा की आहट
भी न थी.

फ़िर भी कलियों
में तारों में,
जीना सीखा
विस्तारों में.

देखे सपने
मन दर्पण में
पर सब दर्पण
टूटे क्षण में.....

3 comments:

travel30 said...

देखे सपने
मन दर्पण में
पर सब दर्पण
टूटे क्षण में.....


bahut sundar kavita hai

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मेरी पहली कविता...... अधूरा प्रयास

Dr. Madhuri Lata Pandey (इला) said...

क्षण में बनते ,
पल में टूटे।
स्वप्न मेरे थे,
किसने लूटे?



देखे सपने
मन दर्पण में
पर सब दर्पण
टूटे क्षण में.....

bhaavpoorna abhivyakti
badhaai

-Madhuri

bhawana said...

achcha likhtee hai aap....