12.9.08

मुक़द्दर......

हाँ, मुझे भी याद है वो काफिला और वो सफर,
सब चले हमको मगर रस्ता नज़र आया नहीं।

हाँ,बड़ी गहराई तेरी बात में हमको लगी,
डूबती खामोशियों को कोई सुन पाया नहीं।

हाँ,भरोसा था मगर इक लाश से ज़्यादा न था,
साँसे भी ले लीं मेरीऔर वो भी जी पाया नहीं।

हाँ ,मुझे एहसास था तेरी चुभन का दर्द का,
कांच मेरी रूह में था देख तू पाया नहीं।

हाँ, मुझे मालूम है वो सुनता है पर देर से,
खटखटाने दर किसी के घर खुदा आया नहीं।

हाँ,मुकद्दर से लडाई चल रही है आज तक,
हारना मुझको न आया, जीत वो पाया नहीं।

5 comments:

मोहन वशिष्‍ठ said...

हाँ,भरोसा था मगर इक लाश से ज़्यादा न था,
साँसे भी ले लीं मेरीऔर वो भी जी पाया नहीं।

बहुत खूब बेहतरीन रचना बधाई के काबिल

श्यामल सुमन said...

हाँ,भरोसा था मगर इक लाश से ज़्यादा न था,
साँसे भी ले लीं मेरीऔर वो भी जी पाया नहीं।

हाँ,मुकद्दर से लडाई चल रही है आज तक,
हारना मुझको न आया, जीत वो पाया नहीं।

बहुत ही सुन्दर। बधाई।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com

Virender Rai said...

हाँ,मुकद्दर से लडाई चल रही है आज तक,
हारना मुझको न आया, जीत वो पाया नहीं।

शायद हम सभी कभी न कभी किसी न किसी हालात में मुकद्दर से लड़ते ही है. पर हम में से शायद ही कोई इस बात पर यकीन रख पाता होगा कि यह लडाई अभी जारी है अगर मुकद्दर हमसे हारा नहीं है तो वह हमसे जीता भी नहीं है, यदि इतना भर विश्‍वास भी हमारे मन में पैदा हो जाए तो उससे भी हमे इस लड़ाई को और अधिक शिद्दत से, और अधिक शक्ति से लड़ने की हिम्‍मत जुट जाएगी. पुनः साधुवाद..........

Dr. Madhuri Lata Pandey (इला) said...

हाँ ,मुझे एहसास था तेरी चुभन का दर्द का,
कांच मेरी रूह में था देख तू पाया नहीं।

हाँ, मुझे मालूम है वो सुनता है पर देर से,
खटखटाने दर किसी के घर खुदा आया नहीं।

हाँ,मुकद्दर से लडाई चल रही है आज तक,
हारना मुझको न आया, जीत वो पाया नहीं।

bahut sundar abhivyakti.....shubhkaamanaa

anshuja said...

हाँ,मुकद्दर से लडाई चल रही है आज तक,
हारना मुझको न आया, जीत वो पाया नहीं।

bahut sunder....keep posting