6.9.08

माँ......

माँ....
तुम्हारा हर स्वर याद आता है,
तरसते हैं हाथ तुम्हारे स्पर्श को
और यादों से दिल भर आता है!
हर क्षण में कितना अपनापन
भर देती थी तुम,
और जीवन का सारा सूनापन
हर लेती थी तुम!
अक्षत और कुमकुम से
लगा देती थी माथे पे
गोल गोल टीका,
सैकड़ों दुआएं मांग लेती थी
एक ही पल में.....
सारे दुःख दर्द छिपा लेती थी
अपने आँचल में,
कितने सपने दिखला देती थी
धुंधले कल में...!
याद है मुझे...
कैसे विचलित कर देते थे तुम्हे
छोटे मोटे ज़ख्म
मेरे इस तन के...
आज कैसे दिखाऊँ
रिसते हुए घाव....
इस मन के,
जीवन के.........!
न जाने क्या था
इस लाल धागे के रिश्ते में...
कि दुनिया भर की जंजीरे तोड़कर,
फ़िर इसी में बंधने का दिल करता है!
बाँध लो न फ़िर से मुझको,
कि कहीं बिखर के
खो न जाऊँ मैं...
भावनाओं से रहित
इस पथरीली दुनिया में,
कहीं पत्थर
हो न जाऊं मैं!
बुला लो मुझे अपने पास....
कि शायद फ़िर जी लें....
मेरे एहसास....!
मन पर लगी
सारी दुनियादारी की मैल ,
धो लेने दो...
आज फ़िर
अपनी गोद में सर रखकर
आँचल से ढककर
रो लेने दो......
जी भर के......!!!

1 comment:

anu said...

मन पर लगी
सारी दुनियादारी की मैल ,
धो लेने दो...
आज फ़िर
अपनी गोद में सर रखकर
आँचल से ढककर
रो लेने दो......
जी भर के......!!!
bahut khoob bt don't b so sad yaar.