क्या चलोगे साथ मेरे?
खंडरों सी है ये बस्ती
खौफ का फैला है साया,
डरते डरते इस घुटन को
छोड़ने का मन बनाया,
अब नही बदलेगा निर्णय,व्यर्थ होंगे यत्न तेरे....
क्या चलोगे साथ मेरे?
शुभ अशुभ का फेर न हो
पाप पुन्य का न घेरा,
दायरों की न हो सीमा
आसमानों पर हो डेरा,
हैं परिंदे मुक्त फ़िर क्यों,काटते हो पंख मेरे?
क्या चलोगे साथ मेरे?
ढूंढनी है ऐसी दुनिया
जो नहीं बस्ती कहीं पर,
शून्य में जिसका शिखर है
मुझको जाना हैं वहीँ पर,
रात होती जा रही है,घिर रहे काले अंधेरे!
क्या चलोगे साथ मेरे?
3 comments:
बहुत खूब !
यदपि मैं पहली बार आप की किसी रचना पर प्रतिक्रिया लिखे रहा हूँ पर निश्चित रूप से आपकी अन्य रचनाएँ भी बेहतरीन हैं | मैं सोच रहा था की आपको अधिक प्रतिक्रिया और प्रशंशा मिलनी चाहिए
बेहतर..और- और भी बेहतर होने की संभावनाओं के साथ..कभी मुझे भी पढना चाहें तो यहाँ पढ़ सकती हैं..
http://roopeshsinghare.blogspot.com
bahut achchha likhti hain aap ! yoon hi likhti rahein to bhavnaa kaise mit sakti hai?
Post a Comment