22.7.08

यूँ ही......

खींच ली पैरों तले की ज़मीन.....
फ़िर कहते हो
बना ले अपना आशियाना
गहरी नींव पर....
तुम तो ये कहकर महान हो गए....
और मैं .....
सिद्ध हो गई...
असफल॥
एक बार फ़िर।

............

सीखने का मन तो बहुत हुआ....
थोडी सी दुनियादारी।
पर ये कमबख्त एहसास.....
चेहरे पर मुखौटे को,
टिकने ही नही देते।

............

रास्ते बहुत थे......
काश तुमने चलने दिया होता.....
थोरे पत्थर रखे हुए थे मैंने,
संभाल कर...
अगर दलदली ज़मीन मिलती....
तो भी बना लेती अपना रास्ता,
पर वापिस न आती!
पर तुमने तो मुझे,
चलने ही नहीं दिया!

11.7.08

मेरा आसमान...

मुट्ठी भर आसमान
था मेरे पास...
तुम्हे दे दिया था,
संभालने को...
लेकिन ये क्या छल किया तुमने,
मेरे आसमान को कैद कर दिया...
मेरे कटे पंखो,बिखरे सपनो और मेरी धूप के साथ...!

4.7.08

क्या चलोगे?

क्या चलोगे साथ मेरे?

खंडरों सी है ये बस्ती
खौफ का फैला है साया,
डरते डरते इस घुटन को
छोड़ने का मन बनाया,
अब नही बदलेगा निर्णय,व्यर्थ होंगे यत्न तेरे....

क्या चलोगे साथ मेरे?

शुभ अशुभ का फेर न हो
पाप पुन्य का न घेरा,
दायरों की न हो सीमा
आसमानों पर हो डेरा,
हैं परिंदे मुक्त फ़िर क्यों,काटते हो पंख मेरे?

क्या चलोगे साथ मेरे?

ढूंढनी है ऐसी दुनिया
जो नहीं बस्ती कहीं पर,
शून्य में जिसका शिखर है
मुझको जाना हैं वहीँ पर,
रात होती जा रही है,घिर रहे काले अंधेरे!

क्या चलोगे साथ मेरे?


1.7.08

गलते हुए....

खामोशी की आँख के आंसू...
न पोछना तुम...
कहीं तुम्हारी उँगलियों के पोर
भीग गए तो...
उसकी नमी तुम्हे भी न बना दे....
मेरे जैसा....!
मैंने भी तो एक दिन
यही किया था...
आज तक उस नमी से गल रही हूँ
कागज़ पर...!!!