फ़िर हुए कुछ स्वप्न खण्डित,
फ़िर प्रयत्नों की कमी!
मांगती कुछ रौशनी,
पर चाँद भी तो है नहीं!
न बरसती आँख भी,
पर बादलों में है नमी!
भागता सा वक्त है,
पर ज़िन्दगी जैसे थमी!
पा लिया सब कुछ हो जैसे,
फ़िर भी है कोई कमी!
क्या करुँ कैसे बचूं,
ये सिलसिला थमता नहीं!
मांगता रहता है आश्रय,
मन कहीं रमता नहीं!
पर उम्मीदें छोड़ दूँ क्या.....?
इसकी भी क्षमता नहीं....!!!
5 comments:
भावना जी
आंधियों में भी दिवा का दीप जलना जिंदगी है
पत्थरों को तोड़ निर्झर का निकलना जिंदगी है
सोचना क्यों, कि किसी छाया तले विश्राम कर लें
वक्त सबसे कह रहा दिन-रात चलना जिंदगी है.
आपकी रचना में निराशा के स्वर हैं. रचनागत शिल्प और अभिव्यक्ति सशक्त, प्रशंसनीय है.
वाह जी बहुत बढ़िया!
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गुलाबी कोंपलें
sunder bhav hai badhai
बहुत बढ़िया!
मांगता रहता है आश्रय,
मन कहीं रमता नहीं!
पर उम्मीदें छोड़ दूँ क्या.....?
इसकी भी क्षमता नहीं....!!!
sahi kaha gaya hai...kavi aashavadi hota hai....tabhi to ummeed ka daaman chhod paane ki kshmataa usmen nahi hai......
bahut sundar abhivyakti....badhaai
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