मैं अकिंचन
सोचती थी देव को,
क्या करुँ अर्पण....
सिर्फ श्रध्हा,
रख सकी थी चरणों में बस
था यही धन.....
मांगती थी,
ज्ञान से ,शक्ति से भर जाए
ये जीवन....
जानती थी,
देव की मूरत है
मात्र प्रस्तरखंड....
पर जो देखा,
देव की प्रतिमूर्ति है
मेरा ही मन....
मैं क्या देती,
मन मुझे अर्पित करे
अंतिम शरण....
संशय मिटाकर,
देता है बल,कहता है कर
कोई सृजन.....
पथ प्रदर्शक
बन चुका अब देव
मेरा अंतःकरण.....!!
7 comments:
nice poem with deep feelings of heart.
भाव और विचार के श्रेष्ठ समन्वय से अभिव्यक्ति प्रखर हो गई है । विषय का विवेचन अच्छा किया है । भाषिक पक्ष भी बेहतर है । बहुत अच्छा लिखा है आपने ।
मैने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-आत्मविश्वास के सहारे जीतें जिंदगी की जंग-समय हो तो पढें और कमेंट भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
बहुत ही सुन्दर रचना है।बहुत बढिया लिखा है-
जानती थी,
देव की मूरत है
मात्र प्रस्तरखंड....
पर जो देखा,
देव की प्रतिमूर्ति है
मेरा ही मन....
रचना अच्छी है.
बहुत ही रचनात्मक....और गहरी अभिव्यक्ति है ....
पथ प्रदर्शक
बन चुका अब देव
मेरा अंतःकरण...
पसंद आया बहुत
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
बस यूं ही कुछ खोजते खोजते आपके ब्लॉग तक आ गया। जब पढ़ने लगा तो यह भूल ही गया कि क्या खोजने निकला था। सच में बहुत अच्छा लिखती हैं आप।
dev ki pratimurti hai mera hi man
.....satvik anubhuti
saral shabd...sundar abhivyakti..!! :)
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