छीन लेते हो तुम
मेरे जीवन से खुशबु
मेरे मन से साहस
मेरी आत्मा से तृप्ति
कर देते हो मुझे वंचित
...बनाते हो अकिंचन
इससे पहल
की मैं मांगू तुमसे
और पीडाएं
और वन्चानाएं....
एक बात पूछू...उत्तर दोगे मुझे,???
मेरा सब कुछ छीन कर भी
तुम हारे हुए से क्यों दीखते हो?
समझ नहीं आता मुझे
अकिंचन मैं हूँ,
या तुम?