मैं अकिंचन
सोचती थी देव को,
क्या करुँ अर्पण....
सिर्फ श्रध्हा,
रख सकी थी चरणों में बस
था यही धन.....
मांगती थी,
ज्ञान से ,शक्ति से भर जाए
ये जीवन....
जानती थी,
देव की मूरत है
मात्र प्रस्तरखंड....
पर जो देखा,
देव की प्रतिमूर्ति है
मेरा ही मन....
मैं क्या देती,
मन मुझे अर्पित करे
अंतिम शरण....
संशय मिटाकर,
देता है बल,कहता है कर
कोई सृजन.....
पथ प्रदर्शक
बन चुका अब देव
मेरा अंतःकरण.....!!